गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

अच्छी कहानी, बूरी फिल्में


पिछले सप्ताह देष के सिनेमाघरों में रिलीज हुई दो फिल्मों पाठषाला और फूंक-2 बाॅलीवुड में एक नए चलन की ओर ईषारा करती है. यह ईषारा है इन दिनों रिलीज हो रहीे फिल्मों की कहानियों और पर्दे पर उनके फिल्मांकन के सिलसिले में. गौर कीजिए, पाठषाला और फंूक-2 दोनों ही फिल्मों की कहानी बेहद उम्दा थी. बावजूद इसके दोनों ही फिल्में टिकट खिड़की पर औंध्ेा मूंह गिरी. न सिर्फ दोनों फिल्में दर्षकों का दिल जीतने में नाकामयाब रही, बल्कि आलोचकों ने भी दोनों फिल्मों को सिरे से नकार दिया.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर अच्छी कहानी के बावजूद दोनों फिल्मों का बुरा हश्र क्यों हुआ ? इसका जवाब यही है कि बेषक दोनों फिल्मों की कहानी अच्छी थी, लेकिन दोनों ही निर्देषक इन अच्छी कहानियों को सही ढंग से पर्दे पर उकेर नहीं पाएं. मतलब यह कि कहानी का ‘आइडिया’ अच्छा था, लेकिन जब इसे दृष्यों में बांटने की नोबत आई, तो निर्देषक और उनके कहानीकार साथी इसमें नाकाम रहे. इसका नतीजा यह रहा कि अच्छी-भली कहानी होने के बावजूद दोनों ही फिल्में न तो दर्षकों का दिल जीत पाई और न ही आलोचकों की कलम को.
और ऐसा भी नहीं है कि यह पहली बार हुआ है. हैरानी इसलिए होतीे है कि बाॅलीवुड में पिछले कईं सालों से यही हो रहा है. बेषक हमारी इंडस्ट्री में बीतें कुछ सालों में नए प्रतिभावान निर्देषक और कहानीकार आएं है, जो लीक से हटकर काम करने में भरोसा करते हैं. अनुराग कष्यप, दीबाकर बनर्जी, शषांत शाह जैसे चिर-परिचित नामों के साथ ही प्रत्येक साल दर्जनों ऐसे नए निर्देषक और कहानीकार अपनी फिल्मों को लेकर भारतीय दर्षकों के सामने आते हैं, जो एक नई कहानी, नया विचार परोसते हैं. लेकिन दुर्भाग्य की बात यही है कि इसके बावजूद उनकी फिल्में औंधे मूंह गिर जाती है. पिछले एक-दो साल के दौरान रिलीज हुई फिल्मों पर नजर डालें, तो लक बाय चांस, सिकंदर, कुर्बान, वेल डन अब्बा, तुम मिले, दिल्ली-6, कार्तिक कालिंग कार्तिक ऐसी ही कुछ फिल्में है, जिनकी कहानी का मूल ‘आइडिया’ बेहद उम्दा था, बावजूद इसके ये फिल्में दर्षकों और आलोचकों दोनों के लिए ही बोझिल अनुभव ही साबित हुई. पहले बात करते हैं, सिकंदर फिल्म की. जम्मू-कष्मीर के आतंकी माहौल के बीच एक लड़के की दास्तां दिल झकझोर देने वाली साबित हो सकती थी, लेकिन नए निर्देषक पियुष झा ने कहानी में राजनीतिक कोण डालकर पूरी कहानी का कबाड़ा कर दिया. नतीजतन, वह एक संवेदनषील फिल्म बनने के बजाए राजनीतिक भाषणबाजी वाली फिल्म बनकर रह गई. इसी तरह सैफ अली खान और करीना कपूर अभिनीत कुर्बान मुस्लिम आतंकवाद की थीम वाली अच्छी कहानी थी, लेकिन निर्देषक ने इसे इस कदर उबाउ बना दिया कि फिल्म में मनोरंजक दृष्यों के लिए ही दर्षक तरस गए. वहीं, इमरान हाषमी और सोहा अली खान अभिनीत फिल्म तुम मिलें मुंबई की बारिष के बीच फंसे एक प्रेमी जोड़े की उम्दा कहानी थी, लेकिन फिल्म में निर्देषक मोहित सूरी ने इतने प्लेषबेक डाल दिए कि फिल्म अपने मूल भाव से भटक गई.
बात बिल्कुल साफ है, कि अच्छी कहानियों के बावजूद हमारे फिल्मकार अच्छी फिल्में नहीं बना पा रहे हैं. नतीजा यह कि बाॅलीवुड अभी भी साल में 300 से ज्यादा फिल्में बनाता है और अभी भी इसमें से नब्बे फीसदी फिल्में बूरी तरह से नाकाम साबित होती है. जाहिर है, इस खराब रिकाॅर्ड को सुधारने के लिए बाॅलीवुड को अभी भी अपनी कार्यप्रणाली में भरपुर सुधार करने की गुंजाइष है.

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

राम गोपाल वर्मा एक चुका हुआ फिल्मकार



इन्दौर के एक मल्टीप्लेक्स से मैं चंद घंटे पहले ही रामगोपाल वर्मा के बैनर तले रिलीज हुई फिल्म फूंक-2 देखकर बाहर निकला हूं. अप्रेल के महीनें में देष के अन्य हिस्सों की तरह ही मालवा में भी बौखला देने वाली गर्मी पढ़ रही है. लेकिन फिर भी,, मैं इस 45 डिग्री की गर्मी की वजह से नहीं, बल्कि फिल्म की वजह से बौखलाया हूं. वजह, मेरा वह कीमती समय, जो रामू के इस वाहियात सृजन को देखने में खराब हुआ है. चूंकि सत्या, कंपनी जैसी फिल्मों की वजह से रामू का प्रषंसक हो जाना मेरी मजबूरी थी., इसलिए उसी प्रष्ंासक दिल का खयाल रखते हुए मैं आईपीएल के मोह को परे रखते हुए फूंक-2 को देखने पहुंुच गया. लेकिन अफसोस, कि अब मुझे अपने फैसले पर पछतावा हो रहा है. इससे भी बढ़कर मुझे दुख हो रहा है कि कभी मेरे दिल के बेहद करीब रहा रामगोपाल वर्मा नामक यह प्रतिभावान फिल्मकार अब पूरी तरह से मानसिक तौर पर दिवालिया हो चुका है. तो अब ऐसे में मेरा मन करता है कि मैं विचार करूं कि आखिर रामू के कॅरिअर में यह नौबत क्यों आई ? क्यों उसके कट्टर प्रषंसक भी अब उसकी फिल्में न देखने की कसमें खाने लगे हैं ?
आखिर में मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ‘ अति सर्वत्र वर्जयते ’ की पुरानी कहावत वर्मा के ऊपर भी पूरी तरह से लागू होती जा रही है. किसी जमाने में मुंबईयां फिल्म इंडस्ट्री के सबसे विचारषील निर्देषकों में शुमार होने वाले रामू एक के बाद एक वाहियात फिल्मों के बाद अब तेजी से अपनी पहचान खोते जा रहे हैं. दरअसल, रामू ने अपनी प्रयोगवादी निर्देषक की छवि पर इतराते हुए कुछेक साल पहले एक गर्व भरी घोषणा की थी कि आने वाले समय में वे प्रत्येक सप्ताह अपने बैनर की एक फिल्म रिलीज करेंगे. इसका मतलब कि साल में चालीस से भी ज्यादा फिल्में रिलीज करने का दंभ भरा था रामगोपाल वर्मा ने. कुछेक समय के लिए उन्होंने यह कोषिष भी की,. नतीजनत, डरना मना है, डरना जरूरी है, नाच, डी, गायब जैसी दर्जनों वाहियात फिल्में वर्मा की फैक्ट्री से निकली, जिन्होंने उनकी साख पर बट्टा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसका नतीजा यह हुआ कि कभी इंडस्ट्री का अग्रणी रहा यह फिल्मकार अब पूरी तरह से अछूत हो गया है. अमिताभ बच्चन को छोड़ दे तो इंडस्ट्री का कोई भी बड़ा सितारा रामू के साथ काम करने को तैयार नहीं है. आजम खान, के सेरा सेरा जैसे काबिल निर्माता और फाइनेंसरों ने रामू से किनारा कर लिया हैं. यहां तक कि रामू ने अंतरा माली,, प्रियंका कोठारी जैसी जिन हिरोईनों के चक्कर में अपने कॅरिअर का कबाड़ा कर लिया, वे भी अब उनसे दूर जा चुकी है.
तो रामू अकेला पढ़ गया है. 2001 की बात है, जब मैं जूहू बीच के किनारे स्थित रामू के आॅफिस को बाहर से देखने गया था. उस वक्त रामू का जलवा इस कदर था कि दर्जनों संघर्षरत कलाकार उसके आॅफिस के बाहर खड़े रहते थे. लेकिन अब यह जलवा खत्म हो चुका है. अब रामू ने अपना आॅफिस बदल लिया है. लेकिन उस आॅफिस के सामने ज्यादा भीड़ खड़ी नजर नहीं आती है.
वजह, इंडस्ट्री में रामू को चूका हुआ मान लिया गया है. उनकी पिछली चंद फिल्मों पर नजर डालें तो रण मीडिया पर केंद्रित एक कमजोर फिल्म थी,, फूंक ने दर्षकों को डराने के बजाए हंसाया ज्यादा, तो वहीं अज्ञात तो एक आधी-अधूरी फिल्म थी. जाहिर है, इतनी नाकाबियों के बाद अगर इंडस्ट्री ने रामू के बारे में यह राय बना ली है, तो इसमें कोई आष्चर्य नहीं है. यही दुनिया का रिवाज है.
और दुनिया के रिवाज के मुताबिक रामू अब एक चुका हुआ फिल्मकार है.

अच्छी फिल्में ही बनाउंगा: नीरज पाठक



फिल्म निर्माण की किसी एक विधा में दक्षता हासिल करना ही बहुत बड़ी बात है, लेकिन कुछ बिरली शख्सियतें ऐसी भी होती हंै, जो प्रत्येक विधा में अपनी छाप छोड़ जाती हैं. बीते दौर के बाॅलीवुड की बात करें तो गुलजार ऐसी ही शख्सियत थीं, जिन्होंने फिल्म निर्देशन के साथ ही लेखन में भी नई ऊंचाइयों को छुआ. वर्तमान में भी बाॅलीवुड में राजकुमार हिरानी, करण जौहर, आदित्य चैपड़ा, अनुराग कश्यप जैसी हरफनमौला शख्सियतें भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने में जुटी हुई हैं. 12 मार्च को रिलीज हुई फिल्म राइट या रांग के निर्देशक नीरज पाठक भी एक ऐसी ही शख्सियत हैं. बतौर लेखक नीरज पाठक ने शाहरुख खान अभिनीत परदेस और धर्मेंद्र, सनी देओल और बाॅबी देओल अभिनीत अपने जैसी फिल्में लिखी हैं. और अब हाल ही में उन्होंने अपनी फिल्म राइट या रांग की रिलीज के साथ बतौर निर्देशक नई पारी शुरू की है. 12 मार्च को रिलीज हुई राइट या रांग आईपीएल और परीक्षाओं के चलते भले ही उम्मीद के मुताबिक कमाई नहीं कर पाई हो, लेकिन आलोचकों ने फिल्म को खूब सराहा. प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश.
कुछ अपने बारे में बताएं?
मुझे बचपन से ही फिल्मी दुनिया अपनी ओर खींचने लगी थी. इसीलिए मैंने इसे अपने करियर के तौर पर अपनाने का फैसला किया और आंखों में सपने लिए थियेटर से शुरूआत की.
तो फिर, इंडस्ट्री में पहला ब्रेक कैसे मिला?
पहला बे्रेक मुझे सुभाष घई ने दिया. यह 1997 के आसपास की बात है. वे उन दिनों शाहरुख खान और महिमा चैधरी के साथ परदेस फिल्म बना रहे थे. मुझे इस फिल्म को लिखने का मौका मिला. मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे पहली ही फिल्म में घई साहब जैसी फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज निर्देशक के साथ काम करने का मौका मिला. फिल्म सुपरहिट रही और इसी के साथ मेरा करियर भी चल पड़ा.
लेकिन इंडस्ट्री में आपको सबसे ज्यादा अपने फिल्म के लेखक के तौर पर जाना जाता है?
हां. और मुझे इस बात का बेहद गर्व है. परदेस फिल्म से शानदार आगाज करने के बाद मैंने चाहत, जुर्म और दीवानगी जैसी फिल्मों के लिए भी लिखा. अक्षय खन्ना और अजय देवगन अभिनीत दीवानगी के लिए संवाद लिखे, चाहत के लिए गाने लिखे और जुर्म की पटकथा लिखी. लेकिन मेरे करियर में सबसे अहम मोड़ अपने लिखने के बाद आया.
अपने फिल्म को लिखने की शुरुआत कहां से हुई?
दरअसल, अनिल शर्मा एक ऐसी फिल्म बनाना चाहते थे, जिसमें धर्मंेद्र अपने दोनों बेटों- बाॅबी और सनी के साथ नजर आएं. इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने की कहानी लिखी. बस इसके बाद जो कुछ हुआ, वह अपने आप में एक इतिहास है. अपने पहली फिल्म है, जिसमें देओल परिवार के तीनों सितारे एक साथ नजर आए. इस फिल्म ने मुझे इंडस्ट्री में मजबूती के साथ स्थापित कर दिया. अनिल शर्मा और धरमजी ने भी इस फिल्म के लिए पूरा क्रेडिट मुझे दिया. इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा और कुछ और नया कर गुजरने का जज्बा भी आया.
आपको इंडस्ट्री के हरफनमौला लोगों में शुमार किया जाता है.
वो शायद इसलिए कि मैं गीत, पटकथा लेखन और निर्देशन तीनों विधाओं में खुद को आजमा चुका हूं. मेरे ख्याल से फिल्म निर्माण के प्रत्येक पहलू पर ध्यान दिया जाना चाहिए और मैंने ऐसा ही किया. दरअसल मैं शुरू से ही निर्देशक बनना चाहता था. अपने फिल्म की शूटिंग के दौरान मैंने यह बात सन्नी देओल को बताई. उन्होंने मेरी बात को पूरी गंभीरता से लिया और इस तरह बतौर निर्देशक मेरी पहली फिल्म राइट या रांग भी रिलीज हो गई है.
लेकिन फिल्म टिकट खिड़की पर उम्मीद के मुताबिक कमाई नहीं कर पाई?
हां, यह बेहद दुखद बात रही. मेरे खयाल से हमने फिल्म की रिलीज के लिए गलत वक्त चुना. 12 मार्च को ही आईपीएल की भी शुरुआत हुई थी. उसी दौरान देशभर में परीक्षाएं भी जारी थीं. इसी के चलते फिल्म को उस तरह का रिस्पांस नहीं मिल पाया, जिसकी हमें उम्मीद थी.
तो फिर राइट या रांग में आपके लिए अच्छा क्या रहा?
भले ही राइट या रांग उम्मीद के मुताबिक कमाई नहीं कर पाई, बावजूद इसके यह फिल्म जिंदगीभर मेरी यादों में बनी रहेगी. सबसे बड़ी बात तो यह रही कि फिल्म को आलोचकों ने खूब सराहा. देश के लगभग सभी बड़े फिल्म विश्लेषकों ने राइट या रांग को एक ऊंचे दर्जे की फिल्म करार दिया. कुछ आलोचकों ने तो इसे श्रीराम राघवन की थ्रिलर जाॅनी गद्दार के बाद पिछले कुछ सालों में बाॅलीवुड की सबसे बेहतरीन थ्रिलर करार दिया. बतौर निर्देशक पहली ही फिल्म की रिलीज के बाद इस तरह की प्रतिक्रियाओं ने मेरा आत्मविश्वास और ज्यादा बढ़ा दिया है.
आप तो इस फिल्म के निर्माता भी बन गए हंै?
हां. और यह मेरे करियर की सबसे बड़ी उपलब्धि है. वह इसलिए क्योंकि आज से दस साल पहले मैंने बतौर लेखक फिल्म इंडस्ट्री में अपने करियर की शुरुआत सुभाष घई साहब के साथ ही की थी. संयोग देखिए कि बतौर निर्माता पहली फिल्म भी उनके साथ ही है. असल में, हमने राइट या रांग फिल्म को घई साहब की कंपनी मुक्ता आटर््स के साथ मिलकर बनाया है. मेरे सबसे करीबी दोस्त कृष्ण चैधरी के साथ मिलकर मैंने प्रोडक्शन हाउस खोला है. उम्मीद है कि भविष्य में भी इसी तरह मनोरंजक फिल्में बनाते रहेंगे.
राइट या रांग के बाद आगामी प्रोजेक्ट?
एक फिल्म और है सन्नी देओल के साथ. द मैन नामक इस फिल्म में सनी के साथ शिल्पा शेट्टी हैं. खास बात यह है कि सन्नी इस फिल्म में मेरे सह-निर्देशक भी हैं. फिल्म की आधे से ज्यादा शूटिंग हो चुकी है. साल के आखिर तक इसे भी रिलीज करने के बारे में सोचा है. इसके साथ ही सन्नी देओल के साथ एक अन्य फिल्म गणित शुरू करने जा रहा हूं. उत्तरप्रदेश की राजनीति पर आधरित इस फिल्म में सन्नी के साथ ही दो अन्य अभिनेता भी होंगे. उम्मीद है साल के मध्य तक हम इस फिल्म की शूटिंग भी शुरू कर पाएंगे.

फिल्मों पर भारी खेल का मजा


लगातार तीसरे साल आईपीएल के चलते बाॅलीवुड को करोड़ों रुपए का नुकसान उठाना पड़ा है. बड़े बजट और सितारों से सजी दर्जनभर फिल्में आईपीएल के चलते हुई नाकाम.
मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री के लिए यह एक ऐसी चुनौती है, जिसे लेकर वह पहले से ही पूरी तैयारी में थी. बावजूद इसके, पहले दो संस्करणों की तरह ही आईपीएल का तीसरा सत्र भी इंडस्ट्री के लिए ऐसी चुनौती बनकर उभरा है, जिसने एक बार फिर उसे करारी शिकस्त दी है. 12 मार्च को आईपीएल के आगाज के बाद से हीे देशभर के सिनेमाघरों में विरानी छाई हुई है और बड़े निर्माता और फिल्म कंपनियां अपनी फिल्मों की तारीख आगे बढ़ाने पर मजबूर हो गई हैं. और जिन छोटे व मध्यम श्रेणी के निर्माताओं ने आईपीएल के इस सीजन में अपनी फिल्में रिलीज करने का साहस जुटाया, वे अब टिकट खिड़की पर कमाई के आंकड़ों को देखकर अपने फैसले पर आंसू बहा रहे हैं. हरेक साल दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाली इंडस्ट्री की हाल-पिफलहाल तो यही नियति है.
वैसे तो आईपीएल का पहला सत्र ही इंडस्ट्री के लिए एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा था. 2008 में आईपीएल के आगाज के साथ ही बाॅलीवुड को करारा झटका लगा था, जब कई बड़े बजट की फिल्में अच्छी होने के बावजूद टिकट खिड़की पर औंध्ेा मुंह गिरी थी. इसके बाद 2009 में भी वही कहानी दोहराई गई. 2009 में तो निर्माताओं और वितरकों के बीच मुनाफे को लेकर दो महीने तक चली रस्साकशी के चलते हालात और ज्यादा खराब हो गए थे. फिल्म विश्लेषक कोमल नाहटा के मुताबिक- ‘पिछले दो साल में आईपीएल के चलते इंडस्ट्री को करोड़ों रुपए का नुकसान उठाना पड़ा. इससे भी बढ़कर उन दर्जनों नए निर्देशकों और कलाकारों का भविष्य भी अंधकारमय हो गया, जो आईपीएल के दौरान रिलीज हुई अपनी फिल्मों के साथ इंडस्ट्री में धमाकेदार करियर की आस लगाए बैठे थे.’
और अब, आईपीएल के तीसरे संस्करण में भी यही कहानी देखने में आ रही है. आईपीएल का यह तीसरा सत्र 12 मार्च से शुरू हुआ और संयोग से इसी दिन शुक्रवार था. सो, इसी दिन से बाॅलीवुड का आईपीएल से शिकस्त का सिलसिला भी शुरू हो गया. 12 मार्च को ही टिकट खिड़की पर एक साथ चार फिल्में रिलीज हुईं, जिनमें से दो फिल्में राइट या रांग और हाइड एंड सिक बड़े सितारों और बड़े बैनर की पिफल्में थीं. सुभाष घई के बैनर तले रिलीज हुई राइट या रांग में सन्नी देओल, इरपफान खान और कोंकणा सेन जैसे बड़े सितारे थे, जबकि हाइड एंड सिक निर्माता-निर्देशक अपूर्व लखिया के बैनर की फिल्म थी. इसके बावजूद दोनों ही फिल्में आईपीएल के चलते टिकट खिड़की पर कोई भी प्रभाव छोड़ने में नाकामयाब रही. इसके बाद मार्च और अप्रैल में वेलडन अब्बा, हम तुम और घोस्ट, अतिथि तुम कब जाओगे, शापित जैसी कई बड़े बैनर और सितारों की फिल्में रिलीज हुईं, लेकिन भारतीय दर्शकों के बीच आईपीएल की दीवानगी के चलते सभी टिकट खिड़की पर नाकाम ही साबित हुई.
जाहिर है, बाॅलीवुड का जादू हर बार आईपीएल के सामने फीका पड़ जाता है. तो इसकी सबसे बड़ी वजह क्या है? इस बारे में नाहटा का मानना है- ‘चूंकि आईपीएल घर बैठे उपलब्ध हो जाने वाला मनोरंजन है, इसलिए दर्शक सिनेमाघरों में आकर फिल्में देखने के बजाए अपने परिवार के साथ घर पर ही बैठकर मैच देखना पसंद करते हैं.’ इसके साथ ही एक दूसरी बड़ी वजह यह भी है कि देश में लोकप्रियता के मामले में क्रिकेट अभी भी फिल्मों से कई कदम आगे है. फिल्म अभिनेता सुनील शेेट्टी के मुताबिक- ‘भले ही इसे हजम कर पाना मुश्किल हो, लेकिन पिछले तीन सालों से सबसेे बड़ी सच्चाई यही है कि आईपीएल बाॅलीवुड का सबसे कट्टर प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा है.’ सुनील शेट्टी की फिल्म तुम मिलो तो सही आईपीएल के दौरान ही मार्च को रिलीज हुई. नतीजतन उनकी फिल्म का भी वही हश्र हुआ. आलोचकों से अच्छी प्रतिक्रिया के बावजूद दर्शक सिनेमाघरों से नदारद ही रहे. वहीं, आईपीएल के मैचों का समय भी बाॅलीवुड के लिए मुश्किल चुनौती साबित हुआ. इस साल के आईपीएल के सभी मैच 4 बजे से शुरू हुए. ऐसे में जिस दिन, दो-दो मैच थे, तो आईपीएल का प्रसारण रात के बारह बजे तक जारी रहा. आमतौर पर पिफल्मों की ज्यादातर कमाई शाम और रात के शो से ही होती है, लेकिन आईपीएल के दौरान दर्शक रात में सिनेमाघरों से दूर ही रहे.
इसी के चलते, अब बाॅलीवुड आईपीएल की चुनौती से निपटने की कोशिशों में जुट गया है. ज्यादातर निर्माता अपनी फिल्मों की रिलीज को आगे बढ़ा चुके हैं. ऐसे ही एक निर्माता-निर्देशक दीपक बलराज विज हैं, जिन्होंने जैकी श्राॅफ अभिनीत साईं बाबा पर आधरित अपनी फिल्म की रिलीज को कई महीने पीछे धकेल दिया है. बलराज विज के मुताबिक- ‘आईपीएल के दौरान फिल्म रिलीज करने का कोई फायदा नहीं है, क्योंकि भारतीय दर्शक हमेशा ही फिल्मों पर क्रिकेट को प्राथमिकता देते रहे हैं.’ पच्चीस से ज्यादा अन्य फिल्मों की रिलीज तारीख भी कई महीने आगे बढ़ा दी गई है.
लेकिन दिक्कतें इससे खत्म नहीं हो जाती. 25 अप्रैल को आईपीएल के समापन के बाद 31 अप्रैल से ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्वकप शुरू हो जाएगा. इसके बाद दक्षिण अÚीका में फुटबाॅल का विश्वकप आयोजित होना है.
फिलहाल तो बाॅलीवुड आईपीएल की गहरी मार से ही जूझ रहा है. मात्र तीन साल में ही आईपीएल को पंद्रह हजार करोड़ रुपए के साम्राज्य में तब्दील कर देने वाले ललित मोदी को बाॅलीवुड पर भी नजरें इनायत करने की सख्त जरूरत है.